बेटियों के अधिकार: क्या है हमारी जिम्मेदारी?
हर परिवार में एक बेटी होती है, लेकिन क्या हम सच‑में जानते हैं कि उसके कौन‑से अधिकार हैं? अक्सर स्कूल, घर या समाज में हमें ऐसे सवालों का सामना करना पड़ता है – बेटी को पढ़ाना क्यों जरूरी है? या क्या वो भी अपने भविष्य का फैसला कर सकती है? चलिए, इन सवालों के आसान जवाब देखते हैं और समझते हैं कि हम कैसे अपने हाथों से बेटी को सशक्त बना सकते हैं।
कानूनी सुरक्षा और प्रमुख कानून
भारत में कई ऐसे कानून हैं जो विशेष रूप से लड़कियों के अधिकारों की रक्षा करते हैं। सबसे पहला है बाल संरक्षण कानून (Protection of Children from Sexual Offences Act, 2012), जो बलात्कार, उत्पीड़न और अन्य अपराधों से बच्चों को बचाता है। इसके अलावा प्री-मैरीटल और मैरीजुअल इंटिमेट पार्टनर (विवाह पूर्व और वैवाहिक अंतरंग साथी) संरक्षण अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से बचाता है। अगर आप पता लगाना चाहते हैं कि ये कानून आपकी बेटी को कैसे मदद कर सकते हैं, तो स्थानीय महिला आयोग या पुलिस थाने में मुफ्त सलाह मिलती है।
एक और महत्वपूर्ण कदम है बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना. इस योजना में सरकारी स्कूलों में लड़कियों के लिए विशेष स्कॉलरशिप, मुफ्त किताबें और बस़ पास उपलब्ध होते हैं। अगर आपके गाँव या शहर में इस योजना के बारे में जानकारी नहीं है, तो अपने पंचायत या नगर परिषद से पूछें – अक्सर जानकारी लापरवाही से नहीं दी जाती, पर आप पूछते ही मिल सकती है।
शिक्षा और करियर को बढ़ावा
शिक्षा सबसे बड़ी ताकत है। जब बेटी को अच्छी शिक्षा मिलती है, तो वह आत्मनिर्भर बनती है और अपने भविष्य के फैसले खुद ले सकती है। सरकारी स्कूली किताबें मुफ्त में उपलब्ध हैं, लेकिन अक्सर परिवार वाले अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग की बात लेते हैं। आप अपने बजट में फिट रहने वाले ऑनलाइन कोर्स या खुली पुस्तकालयों की तरफ देख सकते हैं।
करियर की बात आए तो लेखन, विज्ञान, कंप्यूटर या खेल जैसे क्षेत्रों में आज लड़कियों की संभावनाएं बढ़ रही हैं। कई कंपनियां अब विशेष रूप से महिला उम्मीदवारों के लिए इंटर्नशिप और जॉब फेयर आयोजित करती हैं। अगर आप अपनी बेटी को इस दिशा में प्रेरित करना चाहते हैं, तो नजदीकी रोजगार मेले में भाग लें और उसकी रुचि के अनुसार मार्गदर्शन दें।
दैनिक जीवन में छोटे‑छोटे बदलाव भी बड़ा असर डालते हैं। घर में समान कामों की बाँट बाँट कर दें, ताकि बेटी को घर या बाहर दोनों जगह बराबर जिम्मेदारी महसूस हो। जब वह अपनी राय खुलकर रखती है, तो उसे सुनें और समर्थन करें – यही सबसे बड़ी सुरक्षा है।
तो, अब आप जानते हैं कि बेटियों के अधिकार सिर्फ कागज़ात में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा के छोटे कदमों में भी छिपे हैं। अगर आप इन नियमों और सुझावों को अपनाएंगे, तो आपका घर भी एक सच्चा सशक्तिकरण का मंच बन जाएगा।

हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005: पिता की संपत्ति में बेटियों के बराबर अधिकार और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का असर
2005 के संशोधन ने हिंदू परिवारों में बेटियों को जन्म से सह-अधिकार (coparcenary) दिया। सुप्रीम कोर्ट के Vineeta Sharma फैसले ने साफ कर दिया कि पिता जीवित हों या नहीं, बेटी का हक बना रहेगा, बशर्ते पहले से वैध बंटवारा न हो। वसीयत से आत्म- अर्जित संपत्ति का बंटवारा बदल सकता है। प्री-1956 मौत वाले मामलों में पुराने नियम लागू होंगे। जमीन से लेकर HUF तक, हक और प्रक्रिया दोनों बदली हैं।