हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 2005: पिता की संपत्ति में बेटियों के बराबर अधिकार और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का असर

बेटियों के संपत्ति अधिकार: कानून और पृष्ठभूमि
क्या शादी के बाद बेटी का पिता की संपत्ति में हिस्सा खत्म हो जाता है? नहीं। 2005 के बाद कानून कहता है—बेटी और बेटा बराबर। हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 ने हिंदू संयुक्त परिवार (मिताक्षरा) में बेटी को जन्म से सह-अधिकार (coparcener) का दर्जा दिया। मतलब—परिवार की पैतृक संपत्ति में उसका हिस्सा उसी दिन से बनता है, जिस दिन वह पैदा होती है, ठीक बेटे की तरह।
मूल कानून 1956 का है। तब बेटियां वारिस तो थीं, लेकिन संयुक्त परिवार की सह-अधिकारिणी नहीं मानी जाती थीं। 2005 के संशोधन ने यहीं खेल बदल दिया—बेटी अब HUF में सदस्य ही नहीं, सह-अधिकारिणी भी है। वह हिस्सेदारी मांग सकती है, बंटवारा करा सकती है, और नियमों के दायरे में HUF की मुखिया (कर्ता) भी बन सकती है। दिल्ली हाई कोर्ट ने 2016 में सुजाता शर्मा केस में स्पष्ट किया कि सबसे बड़ा सह-अधिकारिणी सदस्य, चाहे महिला हो, कर्ता बन सकती है।
ये अधिकार किन पर लागू होते हैं? यह ढांचा हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख समुदायों पर लागू होता है। मुस्लिम और ईसाई उत्तराधिकार के नियम अलग कानूनों से चलते हैं, इसलिए उनके मामलों में यह व्यवस्था सीधे लागू नहीं होती।
अब पैतृक और आत्म-अर्जित संपत्ति में फर्क समझ लीजिए। पैतृक संपत्ति वह है जो चार पीढ़ियों तक बिना बंटे आई हो—परदादा से पोती/पोते तक। ऐसी संपत्ति में बेटी का हिस्सा जन्म से तय होता है। दूसरी ओर, आत्म-अर्जित संपत्ति वह है जो किसी ने खुद कमाई या खरीदी हो। इस पर मालिक अपने जीवनकाल में जैसा चाहे कर सकता है—बेच दे, दान कर दे, या वसीयत कर दे। बच्चों का इस पर जीवित पिता/माता के रहते कोई कानूनी दावा नहीं बनता।
तो क्या आत्म-अर्जित संपत्ति में बेटी को कुछ नहीं मिलता? मिलता है—अगर पिता बिना वसीयत (intestate) के गुजरते हैं। तब 1956 के अधिनियम के तहत बेटी, बेटा, पत्नी—सभी बराबर वारिस (Class I heirs) माने जाते हैं। यानी अगर वसीयत नहीं है, तो बेटी और बेटे का हिस्सा बराबर बंटेगा।
कृषि भूमि पर क्या? कई राज्यों में पहले अलग नियम थे, लेकिन 2005 के बाद कृषि जमीन भी उसी समता के सिद्धांत में आती है। बेटी का हक वहां भी उतना ही मजबूत है, जितना गैर-कृषि संपत्ति में।

फैसले, बारीकियां और हक पाने की प्रक्रिया
सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में Vineeta Sharma बनाम राकेश शर्मा में साफ कहा—बेटी सह-अधिकारिणी जन्म से है। पिता 2005 से पहले मरे हों या बाद में, इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क यहां पड़ता है कि क्या परिवार में 20 दिसंबर 2004 के पहले वैध बंटवारा (registered partition deed या अदालत का डिक्री) हो चुका था? अगर हां, तो वह बंटवारा दोबारा नहीं खुलेगा। मौखिक बंटवारे का दावा तभी माना जाएगा जब उसके ठोस सबूत हों—जैसे राजस्व रिकॉर्ड, पक्का दस्तावेज या लम्बे समय की कार्रवाई।
इससे पहले 2016 के Prakash बनाम फूलवती में कोर्ट ने कहा था कि 9 सितंबर 2005 को पिता और बेटी दोनों जीवित होने चाहिए। 2018 में दानम्मा @ सुमन सुरपुर केस आया, जिसने नई व्याख्या को बढ़ावा दिया। आखिरकार Vineeta Sharma ने विवाद खत्म कर दिया—बेटी का हक जन्म से है, पिता के 2005 से पहले मरने पर भी।
पुराने मामलों पर क्या? बॉम्बे हाई कोर्ट ने स्पष्ट किया है—अगर पिता की मृत्यु 1956 के कानून से पहले हुई, तो नए नियम लागू नहीं होंगे। ऐसे मामलों में पुराने शास्त्रीय कानून (मिताक्षरा/दायभाग) की व्यवस्था ही देखी जाती है।
वसीयत की ताकत समझिए। आत्म-अर्जित संपत्ति में वसीयत (Will) सबसे ऊपर है। पिता चाहे तो पूरी संपत्ति किसी एक को दे दें—बेटी-बेटे में बराबरी का नियम तब लागू नहीं होता। हां, वसीयत की वैधता, गवाह और मानसिक क्षमता जैसे मुद्दे चुनौती का विषय हो सकते हैं, पर सिद्ध करने की जिम्मेदारी चुनौती देने वाले पर रहती है।
अब एक अहम गलतफहमी—“रजिस्ट्री/खसरे में नाम नहीं, इसलिए हिस्सा नहीं।” गलत। नाम दर्ज होना (mutation) अधिकार का प्रमाण नहीं, सिर्फ रिकॉर्ड अपडेट है। हक कानून से बनता है, रिकॉर्ड बाद में सुधरता है।
क्या बेटी पिता के कर्ज की जिम्मेदार होगी? सह-अधिकारिणी होने के नाते, HUF की पैतृक संपत्ति के दायरे में वैधानिक कर्ज की जिम्मेदारी आती है, लेकिन व्यक्तिगत संपत्ति या निजी कर्ज के ब्योरे और सबूत के हिसाब से जिम्मेदारी तय होती है। अदालतें “पायस आवश्यकताओं” और वैध देनदारियों के आधार पर निर्णय लेती हैं।
जमीन पर असल असर क्या पड़ा? ग्रामीण इलाकों में कई परिवारों ने बेटियों को हिस्सेदारी देने में देरी की। वजह—सामाजिक प्रतिरोध, “भाई को ही मिलना चाहिए” जैसी सोच, और राजस्व रिकॉर्ड अपडेट की जटिलताएं। लेकिन जैसे-जैसे कोर्ट के आदेश आए, जिला अदालतों और तहसीलों में बंटवारे के मुकदमे बढ़े। जहां बंटवारा हुआ, वहां बेटी को नकद मुआवजा, बराबर हिस्से का प्लॉट, या संयुक्त हिस्सेदारी मिली।
व्यावहारिक बारीकियां भी समझें—अगर 2004 से पहले वैध बंटवारा हो चुका है, तो केस मुश्किल होगा। अगर सिर्फ परिवार की बैठक में “बांट लिया” कहा गया, पर कोई पक्का सबूत नहीं, तो अदालतें आम तौर पर इसे नहीं मानतीं। Vineeta Sharma के बाद मौखिक बंटवारे के बचाव को कड़ी नजर से देखा गया है।
HUF और कर व्यवस्था के लिहाज से—बेटियां अब सह-अधिकारिणी हैं, तो HUF के लाभ-हानि में उनका भी हिस्सा है। HUF का PAN, खाताबही, और संपत्तियों की सूची में सही हिस्सेदारी दिखाना जरूरी है। कर्ता महिला भी हो सकती है, बशर्ते वह सबसे बड़ी सह-अधिकारिणी सदस्य हो।
अब प्रक्रिया की सीढ़ियां—अगर आप अपना हक चाहती हैं, तो कदम कैसे बढ़ाएं?
- दस्तावेज जुटाएं: खसरा-खतौनी/जमाबंदी/रीकार्ड ऑफ राइट्स, पुराने बिक्री दस्तावेज, कर/लोन रिकॉर्ड, परिवार वृक्ष।
- पैतृक बनाम आत्म-अर्जित की पहचान: क्या संपत्ति चार पीढ़ियों से बिना बंटे चली आ रही है? सबूत देखें।
- बंटवारे का इतिहास: 20 दिसंबर 2004 से पहले कोई रजिस्टर्ड बंटवारा या कोर्ट डिक्री है? अगर हां, कॉपी निकालें।
- कानूनी नोटिस: परिवार को हिस्सेदारी का औपचारिक नोटिस भेजें। कई मामले नोटिस और आपसी समझौते से सुलझ जाते हैं।
- मध्यस्थता/समझौता: जिलास्तर के लोक अदालत/मध्यस्थता केंद्र में आवेदन करें। रजिस्टर्ड बंटवारा डीड बनवाकर स्टांप ड्यूटी/रजिस्ट्रेशन कराएं।
- दीवानी वाद (Partition Suit): समझौता न हो तो सिविल कोर्ट में बंटवारे/हिस्सेदारी का दावा दायर करें। जरूरत हो तो अस्थायी स्थगन (stay) भी मांगें।
- रिकॉर्ड अपडेट: डिक्री/डीड के बाद राजस्व रिकॉर्ड में नाम/हिस्सा दर्ज कराएं। रिकॉर्ड अपडेट न होने पर निष्पादन (execution) करवाएं।
समय-सीमा का सवाल अक्सर उठता है। संयुक्त स्थिति (HUF) में रहते हुए हिस्से की मांग पर सामान्यतः सख्त समय-सीमा नहीं लगती, लेकिन किसी रजिस्टर्ड बंटवारे/डिक्री को चुनौती देने, या धोखाधड़ी का दावा करने पर देरी की वजह समझानी पड़ सकती है। सबसे अच्छा है—जल्दी कदम उठाएं और दस्तावेज पक्के रखें।
एक और अहम बात—अगर पिता ने किसी एक संतान को जीवनकाल में बड़ा उपहार दे दिया, तो क्या बाकी को बराबरी मिलेगी? आत्म-अर्जित संपत्ति में पिता का अधिकार पूर्ण है, इसलिए उपहार वैध होगा। लेकिन पैतृक संपत्ति में ऐसा उपहार चुनौती के दायरे में आ सकता है, क्योंकि वहां हर सह-अधिकारिणी का जन्मसिद्ध हिस्सा है।
जेंडर न्याय पर असर दिख रहा है। 2005 के बाद बेटियों की शिक्षा, शहरी-ग्रामीण माइग्रेशन, और आर्थिक आत्मनिर्भरता पर अध्ययन बताते हैं कि पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलने से महिलाओं की सौदेबाजी क्षमता बढ़ती है—दहेज जैसे अवैध चलन को भी यह संरचनात्मक रूप से कमजोर करता है। जमीन और मकान में नाम जुड़ने से बैंकिंग, ऋण और उद्यम शुरू करने में सहूलियत मिलती है।
फिर भी जमीन पर अड़चनें हैं—परिवार का दबाव, “त्यागपत्र” पर हस्ताक्षर करवाना, या डर दिखाकर हिस्से से हाथ खिंचवाना। याद रखें, जबरन त्यागपत्र की कानूनी हैसियत कमजोर है; दबाव/धोखाधड़ी सिद्ध होने पर अदालतें ऐसे दस्तावेज रद्द कर देती हैं।
सार यह नहीं कि हर केस एक जैसा है; बल्कि यह कि नियम साफ हैं और सबूतों पर फैसला होता है। अगर वसीयत है, तो वही चलेगी। अगर वसीयत नहीं है, तो बेटी—चाहे विवाहित हो—बराबर वारिस है। अगर संपत्ति पैतृक है और 20 दिसंबर 2004 के पहले वैध बंटवारा नहीं हुआ, तो बेटी सह-अधिकारिणी है और हिस्सेदारी मांग सकती है।
गलत धारणाएं तोड़ लें—“शादी के बाद हक खत्म”, “कृषि जमीन में हिस्सा नहीं”, “रजिस्ट्री में नाम नहीं तो हक नहीं”—ये तीनों बातें 2005 के बाद कानूनी तौर पर टिकती नहीं। असली कसौटी है—कानून, दस्तावेज, और अदालत की कसौटी।
इस पूरी तस्वीर में सबसे बड़ा कीवर्ड? बेटियों के अधिकार—और ये अब अपवाद नहीं, नियम हैं। सुबूत सही हों, दस्तावेज पूरे हों, और समय रहते कदम उठें—तो हक सिर्फ कागज पर नहीं, जमीन पर भी मिलता है।